Tuesday, January 7, 2020

साइंस या आर्ट्स

चालीस वर्ष पूर्व रोजगार के सारे अवसर साइंस पढ़ने वालों के लिए थे। मुझे भी कहा जाता था कि साइंस पढ़ो इसमें स्कोप है। दसवीं के बाद मैंने साइंस पढ़ी। उससे उब गया तो कॉलेज में आर्ट्स में नामांकन करवा लिया। फिर इंजीनिरिंग का दौर चल पड़ा। सभी इंजीनियरिंग पढ़ रहे थे। मैं छूट गया। कंप्यूटर की पढ़ाई कर लोग धड़ा धड़ अमेरिका जा रहे थे। मुझे भी अपने देश में ही एक छोटी सी नौकरी मिल गई। जीवन की गाड़ी चल निकली। बंगला गाड़ी तो नहीं प्राप्त कर पाया लेकिन विविध अनुभव- कुछ खट्टे तो कुछ मीठे, खूब मिले। अब बस एक बलवती इच्छा है और वो है विश्व भ्रमण की। राहुल सांकृत्यायन की एक पंक्ति याद आती है - सैर कर दुनिया की गाफिल जिंदगानी फिर कहां, जिंदगानी गर बची तो फिर नौजवानी फिर कहां। जो महत्वपूर्ण है वह आसानी से प्राप्त है। और जो यह प्रपंच हमने अपने जीवन के चारो ओर रच रखा है वे जीवन को सरल और अनंदायक बनाने में बाधक हैं। साइंस और आर्ट्स का द्वंद कोई मुद्दा ही नहीं है। यह हमारा ध्यान भटकाने के लिए हैं। मैं तो कहता हूं सिर्फ बकवास है। 

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